Wednesday, 2 May 2018

CIVICS NOTES CLASS 10 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी


सत्ता के विकेंद्रीकरण: सत्ता के विकेंद्रीकरण का तात्पर्य सत्ता को एक स्थान पर केंद्रित न कर उसका विभिन्न स्तरों पर विभाजित किया जाता है। भारत में केंद्र और राज्य के मध्य सत्ता विभाजन इसका उदाहरण है।
रंगभेद: रंगभेद का तात्पर्य चमड़ी के रंग के आधार पर लोगों में भेदभाव करना है। दक्षिण अफ्रीका में गोरे लोगों की सरकार ने बहुसंख्याक काले लोगों के प्रति विभिन्न प्रकार के भेदभाव की नीति अपनाई। इसे रंग-भेद नीति के नाम से जानते हैं ।
बिहार में इन दिनों बनने वाले सामाजिक विभाजन: बिहार में नए सामाजिक विभाजन का आधार 'दलित' और 'महादलित' है
सामाजिक विभाजन के आधार: सामाजिक विभाजन का आधार क्षेत्रीयता,धर्म, भाषा, जाति, लिंग, संस्कृति आदि हैं।
भारत में सत्ता की साझेदारी :भारत में विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच अभिव्यक्ति एवं पहचान के लिए सत्ता के विभाजन होता है। इस व्यवस्था में समूह के हित एवं जरूरतों को सम्मान दिया जाता है। जिससे समूह टकराने से बच जाते हैं। सत्ता में साझेदारी द्वारा सार्वजनिक सहमति बनाने का प्रयास किया जाता है।
अमेरिका में सामाजिक विभाजन के प्रमुख आधार :अमेरिका में सामाजिक विभाजन के प्रमुख आधार श्वेत एवं अश्वेत ।
पुराने जमाने में छूतो पर लागू सामाजिक पाबंदी: इतिहास में इस बात के प्रमाण है कि शुद्रो को समाज में ढोल बजाकर चलने का प्रावधान था ताकि उनकी छाया भी किसी स्वर्ण पर ना पड़े।
गरीबी रेखा के नीचे के निर्धारक: ग्रामीण क्षेत्रों के लिए प्रति व्यक्ति प्रति माह 327 तथा शहरी क्षेत्रों के लिए प्रति व्यक्ति यदि विवाह 455 कम है तू वह व्यक्ति या परिवार गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहा है।
राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता काआशय: भारत विभिन्नताओं का देश है। यहां अनेक भाषाओं, रहन- सहन, खान- पान, वेशभूषा एवं संस्कृतियों के लोग रहते हैं। सभी गर्व से बोलते हैं- "हम सब भारतीय हैं।"
जाति व्यवस्थाअब कुछ कमजोर: जागरूकता से दबे कुचले दलित जातियों में बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं। ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, डॉ भीमराव अंबेडकर, और पेरियार रामास्वामी नायक जैसे समाज सुधारकों के सक्रिय प्रयासों ने भी पिछड़ों दलितों तथा समुदाय में जागृति लाने का काफी प्रयास किया। परिणाम स्वरुप जाति की संरचना एवं व्यवस्था में भारी बदलाव आया है। चतुर्दशी आर्थिक विकास शिक्षा, एवं साक्षरता में वृद्धि, चुनने की आजादी एवं शहरीकरण का बढ़ता दायरा भी जाति व्यवस्था को प्रभावित की है । इससे जातीय प्रतिबंधों में ढीलापन आया है। साथ बैठने, उठने, खाने- पीने, होटल, ट्रेन ,या बसों में साथ बैठकर यात्रा आदि करने में कहीं कठिनाई आज नहीं हो रही है।
चुनाव में जातीयता ह्रास की प्रवृत्ति:आज जातिगत आधार पर दलों के गठन अस्तित्व को जनता नकारने लगी है। कोई भी दल मात्र एक जाति के मत से सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती। ऐसी स्थितियां कई बार बन जाती है कि जब जातियों के दो खेमा में बटवारा हो जाता है। बंटवारा इस स्थिति में निर्णायक भूमिका भी विजातीय निभाने लगते हैं। दलों द्वारा जातीय समीकरण के आधार पर उम्मीदवार दिए जाते हैं। जाति बहूल समुदाय कभी-कभी दो दलों से सजाती उम्मीदवारों को मत देने के मुद्दे पर दो खेमों में बंट जाते हैं। इस स्थिति में भी निर्णायक भूमिका अल्पसंख्यक जाति ही निभाती है।
लैंगिक असमानता सामाजिक असमानता का एक रुप: सामाजिक संरचना के हर क्षेत्र में झलक मिल जाती है। घर से लेकर सामाजिक संरचना का प्रत्येक क्षेत्र लैंगिकअसमानताको प्रदर्शित करता है। समाज का निर्माण पुरुष तथा स्त्री को मिलने से बनता है। समाज का संपूर्ण विकास स्त्रियों के संपूर्ण विकास के बिना संभव नहीं हैं। भारतीय परिवेश में स्त्रियां हर क्षेत्र में पिछड़ी हैं। यही पिछड़ापन पर भारत विकसित देशों को बनाने के मार्ग में एक बड़ी बाधा है। महिला में शिक्षा का स्तर अपेक्षाकृत पुरुषों से काफी कम है। प्रति महिला प्रतिवर्ष आय भी अपेक्षाकृत पुरुषों से काफी कम है।
धर्म एवं राजनीति के संबंध: गांधी जी ने कहा था कि धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता है। गांधी जी का धर्म से आशय नैतिकता से था नैतिक मूल्यों से था। राजनीति को धर्म मूल्यों से निर्देशित होना चाहिए। यदि विभिन्न धर्मों के अच्छे विचार, आदर्श, तथा मूल्य को समावेश राजनीति में कर दिया जाए तो देश का कल्याण होगा। हर व्यक्ति को एक धार्मिक समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में अपने हितो जरूरतों तथा न्याय संगत मांगों को राजनीति में उठाने का अधिकार होना चाहिए। राजनीतिक सत्ता को यह भी देखने योग्य होना चाहिए कि धर्म किसी के साथ भेदभाव तो नहीं करता या किसी का शोषण अथवा अत्याचार तो नहीं कर रहा है।
जातीय असमानता के सामाजिक प्रभाव: संवैधानिक उपबंध के बावजूद जाति व्यवस्था अपने प्राचीन रूप में सामाजिक व्यवस्था का अंग बनी हुई है। यद्यपि इसमें कुछ बदलाव अवश्य हुए हैं। आज भी अंतरजातिय विवाह को सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है। समाज में छुआछूत संबंधी प्रचलन अभी भी मौजूद है। आज भी जाति तथा आर्थिक हैसियत पर सह संबंध बना हुआ है। कुछ प्रभावी जातियों का समाज में वर्चस्व है आर्थिक असमानता का मूल कारण जातीय भावना है। आज जाति के सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक पहलू में बदलाव हो रहा है किंतु धीमी गति से।
सांप्रदायिकता राजनीति को प्रभावित करती है : जब यह विचारधारा बनने लगती है कि धर्म से ही राजनीति बनती है बिगड़ती है तो सांप्रदायिकता की भावना दिखने लगता है प्रभाव दिखने लगता है। सांप्रदायिकता के छरी के अंतर्गत एक ही धर्म के लोग रहते हैं भले ही उन्हें अन्य आधार पर वैचारिक मतभेद क्यों ना हो ? धार्मिक समुदाय का प्रमुख सांप्रदायिकता के सोच राजनीति में बनाए रखना चाहता है । अल्पसंख्यकवाद तथा बहुसंख्यकवाद के होने के कारण बहुसंख्यकवाद प्रभावी होता है। बहुसंख्यपरस्ती की प्रसिद्धि का उदाहरण श्रीलंका में सिंहलियों के द्वारा घोषित एकमात्र सरकारी भाषा सिंहलि एक उत्तम उदाहरण है।
सामाजिक विविधता राष्ट्र के लिए घातक: सामाजिक विविधता का वैसे तो समाज के विकास का लक्षण है लेकिन जब यह विविधता लोगों में तनाव संघर्ष वअलगाववाद को जन्म देती है तो यह राष्ट्र के लिए घातक बन जाती है। भारत में जाति, धर्म, संस्कृति, भाषा आदि की विभिन्नताएं पाई जाती हैं । लेकिन निहित स्वार्थ तथा सहनशीलता के अभाव में यह विविधताएं सामाजिक तनाव का कारण बन जाती है। जो कि राष्ट्रीय एकता के लिए घातक हैं।
सांप्रदायिक सद्भाव के लिए क्या करना चाहिए: भारत में विभिन्न धर्मों के लोग निवास करते हैं। धार्मिक पहचान के आधार पर राजनीतिक आर्थिक स्वार्थों की पूर्ति के कारण सांप्रदायिक सद्भाव के स्थान पर सांप्रदायिक संघर्ष का जन्म होता है। सांप्रदायिक सद्भाव के लिए शिक्षा जागरूकता का विकास विभिन्न धर्मों के लोगों में आपसी समझ के विकास तथा धर्म के राजनीतिक उपयोग पर रोक लगाना आवश्यक है।
जन्म के साथ ही लैंगिक भूमिका निर्धारित होने लगती है : पालन पोषण के साथ ही लड़कियों का उसका परिवार यह बताने लग जाता है कि आने वाले समय में उनकी मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाना बच्चों का लालन पोषण करना तथा अपने से बड़ों का आज्ञा का पालन करते हुए घर की चारदीवारी के अंदर है । बचपन से ही श्रम का लैंगिक विभाजन प्रारंभ होने लग जाता है। उनके दायित्वों में घर का खाना बनाना, कपड़ा साफ करना, सिलाई कढ़ाई करना, ग्रामीण इलाकों में घर में आए अनाजों को तैयार कर उन्हें साफ सुथरा करके उनके विक्रय योग्य या खाने योग्य बनाना तथा इसे कोठी में संग्रहित करना। इन सारी भूमिकाओं के के निर्धारण का आधार कहीं भी जैविक नहीं है । पुरुष वर्ग यह मानकर चलता है कि औरतों का जन्म इसी कार्य के लिए ईश्वर ने दिया है तथा महिलाओं के लिए यही तयशुदा सामाजिक भूमिका है।
औरतों के साथ भेदभाव दर्शाने वाली कुछ स्थिति :माता पिता के नजरिया में फर्क होने के कारण लड़कियों की शिक्षा पर व्यय को फालतू खर्च मानने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है। यही कारण है कि भारत के अधिकांश राज्य में महिला साक्षरता दर काफी कम है । यही मानसिकता है कि ज्यादा पढ़ा-लिखा देने के बाद बेटी के लिए उसी स्तर का वर ढूंढने में दहेज काफी देना होगा। इस सोच से स्त्रियों में अशिक्षा बढ़ती है। यही कारण है कि आज कुछ लड़कियां ही अच्छे वेतन एवं ऊंचे पदों पर पहुंच पाई है। पुरुषों के काम के घंटों में भी काफी फर्क होता है। स्त्रियां अपेक्षाकृत पुरुषों से ज्यादा काम करती है किंतु प्रत्यक्षत: अर्थ-पार्जन से नहीं जुड़े होने के कारण तथा घरेलू होने के कारण इनका महत्व नहीं है । लड़कों की चाहत तथा भ्रूण हत्या दो ऐसे काले सामाजिक दास्तान हैं जो औरतों के साथ अमानवीय भेद भाव दर्शाते हैं।
लैंगिक मसले और राजनीति पर विचार: सामाजिक असमानता का एक महत्वपूर्ण रूप लैंगिक असमानता है। लैंगिक पूर्वाग्रह शायद अधिकांश में पाया जाता है परिवारों में पूर्णिया महिलाओं के कार्य क्षेत्र एवं दायित्व क्या है सीमांकन कर दिया जाता है। पराया पराया महिलाएं अपने आप को नहीं निकाल पाती है यद्यपि विभिन्न संवैधानिक उपबंधों, महिला आंदोलनों के कारण महिलाओं की सहभागिता विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ि है। राजनीतिक गलियारों में भी महिलाओं ने दस्तक देना शुरू कर दिया है। लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 59 तक पहुंच गई हैं। इनकी वाजिब सहभागिता के लिए महिला विधेयक लाने का प्रयास चल रहा है जो राज्यसभा में सभा से पारित हो चुका है ।
श्रम का लैंगिक विभाजन का अर्थ: श्रम के लैंगिक विभाजन का अर्थ है कार्यों का बंटवारा और बंटवारा लिंग के आधार पर। प्रायः घर के भीतर के काम की जवाबदेही महिलाओं को सौंपी गई हैं। पुरुषों को घर के बाहर के वैसे काम 100 पर गए हैं जिसमें अर्थोपार्जन होता है। घर के लिए पेयजल की व्यवस्था यहां तक कि दूरदराज से भी गगरी में जल लाना हो तो महिलाओं के जिम्मे यह कार्य सौंपा गया है। श्रम का लैंगिक विभाजन महिलाओं के श्रम शोषण के उद्देश्य प्रीत-प्रधान समाज द्वारा बनाई गई जो एक मानवीय प्रयास का परिणाम है।
जाति की परिभाषा एवं इसकी विशेषताएं: सामाजिक असमानताओं का एक महत्वपूर्ण आधार भारत की जाति व्यवस्था है । जाति एक अंश तक ही पेशा पर आधारित सामाजिक व्यवस्था है। जाति के सदस्यता पूरी तरह जन्म पर आधारित है। जिन जातियों की पेशा तयशुदा है उनमें आपसी संबंध प्रगाढ़ रहते हैं। यह जरूरी नहीं कि वह पेशा से साथ हैं। जन्म -संबंध आज जातिगत राजनीति के नीव में है फलत: सामान जाति के लोग प्रायः समान समिति में विश्वास रखते हैं।
वर्ण व्यवस्था:पेशा के आधार पर सामाजिक विभाजन वर्ण- व्यवस्था है। वर्ण व्यवस्था की सदस्यता खुली होती है। व्यक्ति का जन्म चाहे कहीं भी हो, जीवन यापन हेतु जिस पेशा को अपनाता है वही उसका जन्म कूल है। वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र 4 जातियां हैं। ब्राह्मण को सबसे ऊंचा, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र को समाज में क्रमानुसार स्थान प्राप्त था। आज भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता एवं जाति प्रथा का बोलबाल है। अब भारतीय जात पात को उतना नहीं मानते हैं।
धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की विशेषताएं या धर्मनिरपेक्ष राज्य: भारतीय संविधान की बुनियाद धर्मनिरपेक्षता है । साथ ही साथ संविधान के लिए चुनौती भी है। संविधान ने चुनौती को स्वीकारते हुए निम्नांकित उपबंध में धर्मनिरपेक्षता हेतु निर्धारित किए - (i)भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है जबकि पाकिस्तान-श्रीलंका जैसे देशों में राष्ट्र धर्म इस्लाम एवं बौद्ध धर्म घोषित हैं । धर्म को भारतीय संविधान में विशेष दर्जा नहीं दिया गया है।(ii) हर नागरिक को कोई भी धर्म स्वीकारने, मानने का अधिकार भारतीय संविधान देता है । (iii) धर्म के आधार पर ना तो कोई किसी अवसर से वंचित किया जा सकेगा या उसे प्राथमिकता दिया जा सकेगा।(iv) किसी को भी धर्म प्रचार प्रसार शांतिपूर्ण ढंग से करने की स्वतंत्रता संविधान में हैं।(v) धर्म के आधार पर भारतीय संविधान किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करता है।
नीतियां निर्धारित : लोकतंत्र में टकराव एवं सामंजस्य चलता रहता है। लोकतंत्र इन्हीं के बीच अपनी नीतियां निर्धारित करता है। नीतियां जब निर्धारित होती है तो असंतोष की जवाला फूटना स्वभाविक है। कुछ समूह ऐसे होते हैं जो इन्हें नहीं स्वीकारते और संघर्ष का मार्ग अपनाते हैं। संघर्ष ही कठिन मार्गो से गुजरती हुई नीतियां संघर्ष के बीच सामंजस्य की स्थिति बनाते हुई पलती है। इस स्थिति में प्रभावित संघर्ष समूह इसे स्वीकार कर लेते हैं और नीतियां निर्धारित हो जाती है। पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण तथा शिक्षण संस्थाओं में भी आरक्षण के परिणाम स्वरुप में उपजे तनाव, असंतोष, लंबी जद्दोजहद तथा हिंसा के उपरांत आखिरी लागू हो ही गया । इस संदर्भ का यह एक अच्छा उदाहरण है।
जाति राजनीति को प्रभावित करती हुई खुद प्रभावित होती रहती है: जाति खुद भी राजनीति से प्रभावित होती है। जाति के भीतर राजनीति कभी कभी बाहरी राजनीति से प्रभावित होती है । इस प्रकार जाति और राजनीति में द्विपक्षीय संबंध है। राजनीति जातिगत भावना को उभरती है । राजनीति के तहत जातीय गठबंधन बनाए जाते हैं तथा सत्ता हासिल किया जाता है। इसके लिए जातियों के साथ मोलभाव भी किए जाते हैं। जातियों का राजनीतिकरण हो जाता है। जातियों को आज वोट बैंक की संज्ञा दी जाती है। कभी-कभी तो अल्पसंख्यक जाती है एकजुट रहती है तो उनका भी महत्व बढ़ जाता है । दो समान जातियों के वोट के समय अल्पसंख्यक जाति के वोट बैंक का महत्व बढ़ जाता है। इस प्रकार जाति एवं राजनीतिक दूसरे को प्रभावित करते हैं
सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम: सामाजिक विभाजन सामाजिक विभेद एवं सामाजिक संघर्ष के लिए मूल रूप से उत्तरदाई है। प्रत्येक समाज में विभिन्न जाति-धर्म क्षेत्रीयता मौजूद रहती है। इनके आधार पर आपस में उलझना राष्ट्र को कमजोर बनाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रगति, शांति सभी प्रभावित होते हैं। अत: सामाजिक विभेद एवं संकीर्णता समाप्त कर सामाजिक विभाजन की राजनीति को रोका जा सकता है। प्रदेश, जातीय धार्मिक उन्माद ने भारत के विकास को किस प्रकार प्रभावित किया है यह भारतीय जनता अच्छी तरह जानती है।
भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति: लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या बढ़कर 59 जरूर हो गई है किंतु यह अभी भी 11% कम है । विकसित राष्ट्रों में महिलाओं प्रतिनिधियों की संख्या पर्याप्त है- ब्रिटेन में 19.3 प्रतिशत अमेरिका में 16.3 प्रतिशत इटली में 16.1% आयरलैंड में 16.2% तथा फ्रांस में 13.9 प्रतिशत। भारतीय संदर्भ में अधिकांश महिला सांसदों की परिवारिक पृष्ठभूमि राजनैतिक रही है या कुछ मामलों में अपराधिक भी । यह इस बात को प्रमाणित करती है कि सामान्य महिलाओं के लिए अभी भी विधायिका की दहलीज दूर है।
भ्रूण हत्या: भ्रूण हत्या का तात्पर्य गर्भ में ही कन्या शिशु की गर्भपात द्वारा हत्या करना है । आज की वैज्ञानिक तकनीकी द्वारा गर्भ काल के दौरान ही पता चल जाता है कि गर्भ में पल रहा शिशु कन्या है या बालक। क्योंकि अधिकांश दंपति लड़की की तुलना में लड़के को अधिक चाहते हैं ।अत: गर्भ में कन्या शिशु की गर्भपात द्वारा हत्या करवा देते हैं। भारत में भ्रूण हत्या का विरोधी कानून अधिक सफल नहीं हो पाया है क्योंकि इस कानून का का कड़ाई से पालन नहीं हो रहा है। भ्रूण हत्या जनता की मान्यताओं एवं विश्वासों से संबंधित है जिसे आसानी से नहीं जा सकता । भ्रूण हत्या पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता का प्रतीक है।
नारी सशक्तिकरण :नारी सशक्तिकरण का तात्पर्य यह है कि महिलाओं को प्रभावित करने वाले आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, और परिवारिक मामलों में नीति निर्माण प्रक्रिया में भागीदारी प्रदान करना। वर्तमान युग में नारी सशक्तिकरण की धारणा को राष्ट्रीय वअंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन प्राप्त हो रहा है। भारत सरकार ने वर्ष 2000 ईस्वी में नारी सशक्तिकरण की नई नीति की घोषणा की है। पंचायतों नगरपालिकाओं में महिला आरक्षण नारी सशक्तिकरण का उदाहरण है।




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